Friday 22 May 2015

रिपोर्ट:साहित्य जनता के दुःख- दर्द, आशा-आंकाक्षा को अभिव्यक्त करें - प्रो. पालीवाल


चित्तौड़गढ़.

साहित्य की सामाजिक हैसियत आज भी बरकरार है, बस इसे प्रभावशाली बनाए रखने के लिए हमें इसमें युगानुकूल बदलाव की जरूरत है। साहित्य जनता के दुःख-दर्द, आशा-आंकाक्षा को पूरी ताकत से अभिव्यक्त करें तो निश्चय ही इसकी सार्थकता बची रहेगी। रचनाकार जनता से जुड़कर, उनके बीच जाकर ही कालजयी साहित्य रच सकते हैं।

गुरूवार को साहित्यिक संस्था ‘सम्भावना‘ द्वारा आयोजित ‘ साहित्य की सामाजिक हैसियत‘ विषयक विचार गोष्ठी को सम्बोधित करते हुए प्रख्यात आलोचक एवं कहानीकार प्रो0 सूरज पालीवाल ने कहा कि हर पल बढते बाजारवाद के खिलाफ मुकम्मल लड़ाई में ‘विवेक‘ हमारा प्रमुख औजार है।बाजारवाद ने भाषा, संस्कृति एवं स्मृति को नष्ट करने का षड्यंत्र रचा है, जिससे साहित्य का समाज से सीधा जुड़ाव बाधित हो रहा है। बाजार के आकर्षण एवं चकाचौंध से बचने के लिए हमें नवीन अस्त्रों का इस्तेमाल करना पड़ेगा। हमें साहित्य एवं राजनीति के संबंध को प्रगाढ करना पडे़गा । श्री पालीवाल ने उसने कहा था , ईदगाह और बाजार में रामधन जैसी प्रसिद्ध कहानियों के प्रसंगों का उल्लेख करते हुए बताया कि आज राजनीति सब कुछ तय कर रहीं है, बाजार अब घर में आ गया है, बाजार हमें तोड़ भी रहा है और लूट भी रहा है । जनता की बदलती चित्तवृति को समझकर ही हम संवेदनाओं को जागृत कर सकते हैं। 

विचार गोष्ठी मंे विषय प्रवर्तन करते हुए डॉ. सत्यनारायण व्यास ने कहा कि साहित्य और समाज अन्तर अनुशासनिक डोर से बंधे हुए है। साहित्य के क्षेत्र मंे कोई विचारधारा बॉस नहीं बन सकती है, वैसे साहित्य की स्वायत्तता भी निरपेक्ष एवं निरंकुश नहीं हो सकती है। साहित्य की स्वायत्तता समाज सापेक्ष है। समाज को बनाने एवं बिगड़ने के लिए साहित्य के साथ-साथ समस्त कलाएँ जिम्मेदार हैं। विभिन्न विचार धाराआंे के खण्डन-मण्डन में वक्त जाया करने के बजाय हमें मनुष्य को साहित्य का लक्ष्य बनाना चाहिए।

विजन स्कूल ऑफ मैनेजमेंट में आयोजित गोष्ठी का संचालन करते हुए डॉ. कनक जैन ने प्रश्न उठाए और कहा कि आज के समय में साहित्य के स्वरूप मंे बदलाव आ गया है, तकनीकी परिवर्तन एवं विस्तार के फेसबुक, वाट्सएप एवं ट्वीटर जैसे अनगिनत माध्यमों के बावजूद कभी-कभी लगता है कि हम लिखकर कोई तीर नहीं मार रहे हैं। लोग लड़- भिड़ रहे है, लहूलुहान हो रहे है, ऐसे में हम क्या कर पा रहे हैं ? साहित्य मंे जनता को हताशा एवं निराशा से उबारने की ताकत होना जरूरी है।

आकाशवाणी के कार्यक्रम अधिकारी लक्ष्मण व्यास ने कहा कि भूमण्डलीकरण की जकड़न में हम बेबस हो गए है । साहित्य और संस्कृति मानों अप्रासंगिक होते जा रहे है।साहित्य वहीं है जो मानव हित की बात करेगा उसकी सुनेगा । असलियत फिक्शन से भी ज्यादा रोमाचंक हो गई है। तकनीकी के भंवर में फँस कर हम इतने व्यस्त हो गए हैं कि कुछ सार्थक नहीं कर पा रहे हैं। प्रमुख शिक्षाविद एवं डाईट के पूर्व प्रधानाचार्य मुन्नालाल डाकोत ने गोष्ठी में अपने विचार रखते हुए साहित्य की क्षमता के समर्थन में तर्क रखे। 

विचार गोष्ठी के प्रारंभ में अतिथियों- डॉ. साधना मण्डलोई, प्रो. पालीवाल, डॉ. शर्मा, डॉ. ए.एल. जैन, आदि ने सरस्वती की प्रतिमा के समक्ष द्वीप प्रज्वलन किया। फजलू रहमान एवं विकास अग्रवाल ने प्रो. सूरज पालीवाल और डॉ. के.सी. शर्मा का स्वागत किया । गोष्ठी में नटवर त्रिपाठी, गीतकार रमेश शर्मा, कवि अब्दुल जब्बार, राजेश चौधरी, माणिक जे.पी. दशोरा, कामरेड आनंद छीपा, जी.एन.एस. चौहान, पूर्व प्राचार्य एम.एल.जाट, कौेटिल्य भट्ट, मो. उमर, श्रीमती चन्द्रकांता व्यास, श्रीमती रेखा जैन, व्याख्याता मोहसिन खान, कवि रामेश्वर पाण्ड्या, हकीम बेग मिजार्, सत्यनारायण खटीक, संयम पूरी, पूरण रंगास्वामी सहित अनेक सुधी साहित्य प्रेमी उपस्थित थे। अन्त में संभावना के अध्यक्ष डॉ. के.सी. शर्मा ने सभी साहित्य प्रेमियों का आभार व्यक्त किया । 

डॉ. कनक जैन

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